मानसिक स्वास्थ्य को बीमा कवर देने की पहल है अमल नहीं

मानसिक स्वास्थ्य को बीमा कवर देने की पहल है अमल नहीं

                                                                   (सांकेतिक तस्वीर)

नरजिस हुसैन

रितु जो आज दो युवा बच्चों की मां हैं बताती हैं, “जब मेरी दूसरी बेटी 10वीं में आई तो उसकी पढ़ाई को लेकर मैं बहुत परेशान थी क्योंकि वह पढ़ाई में कुछ लापरवाह थी। इस बीच परिवार में भी कुछ वजहों से लंबे वक्त तक लड़ाई झगड़ा और तनाव रहने लगा। तो मेरी साइकियाट्रिस्ट से एक महीने में ही तीन से चार बार अपाइंटमेंट हो जाती थी, जो मेरी लिए काफी खर्चीली थी।“ खैर, सीटिंग तो पूरी ली लेकिन, उसके साथ ही दवाओं का खर्च, अच्छे खान-पान डॉक्टर की आराम करने की सलाह के बाद डिप्रेशन काफी कम तो हुआ। लेकिन, बाद में पैसे की तंगी उन्होंने लंबे वक्त तक झेली।

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यह बात सभी जानते हैं कि आज कांउसिंलिंग की एक सिटिंग का खर्च दिल्ली जैसे महानगर में 1,000-1,500 तक आता है। कांउसिलर ज्यादातर प्राइवेट सेक्टर में काम करते हैं। अगर किसी मनोरोगी की एक महीने में चार सिटिंग है तो मानिए 6,000 रुपए जो गए उसकी बीमा कंपनी से वापसी नही है। मानसिक विकार एक ऐसी अवस्था है कि जिसमें जरूरी नहीं कि मरीज को फौरन अस्पताल में भर्ती करना पड़े क्योंकि मनोविकार तो ज्यादातर कांउसिंलिंग के जरिए ठीक होते हैं। ऐसे में मानसिक स्वास्थ्य को स्वास्थ्य बीमा में शामिल करने से इन मनोविकारों से जूझ रहे लोगों को कितना फायदा पहुंचेगा यह पता चलने में अभी कुछ वक्त और लगेगा।

क्रेडिटसाथी डॉटकॉम के को-फांउडर अभिषेक जैन ने कहा, “मानसिक स्वास्थ्य को स्वास्थ्य बीमा में शामिल करने से मानसिक स्वास्थ्य के लिए जागरुकता उसका महत्व और उसकी शिक्षा को बढ़ावा मिलेगा। जहां तक ओपीडी या काउंसिलिंग कवर की बात है तो इंश्योरेंस कंपनियां यह बिल्कुल तय कर सकती हैं कि एक महीने में कितने सेशनस या थैरेपी को कवर किया जाएगा लेकिन, इस बात को अगर सिरे से बीमा दायरे से बाहर रखा जाएगा तो कौन मनोरोगी बीमा काराएगा।।“ यूएई की रैक इंश्योरेंस कंपनी में डिप्टी सीओ की हैसियत से काम कर चुके अभिषेक ने बताया कि यूएई में बीमा कंपनियों ने भी मानसिक स्वास्थ्य को बीमा में शामिल करना शुरू कर दिया है और वहां सबसे ज्यादा फोकस कांउसिलिंग पर ही है।  

सेंटर फॉर मेंटल हेल्थ लॉ एंड पॉलिसी के निदेशक, सौमित्रा पठारे का इस बारे में कहना है, “संसद ने कानून के जरिए मानसिक स्वास्थ्य रोगियों को समानता के आधार पर इलाज और बीमा देना तय किया है। यहां इस बात का ध्यान रखना होगा कि कानून ने इन्हें समानता दी है।“ मानसिक स्वास्थ्य देखभाल कानून, 2017 की ड्राफटिंग टीम में अपने खास इनपुट देने वाले साइकियट्रिस्ट सौमित्रा ने इसे काफी सकारात्मक पहल बताया। लेकिन, वहीं दूसरी तरफ एडवोकेट और मानसिक स्वास्थ्य एक्टिविस्ट गौरव कुमार बसंल का कहना है, “आज सारी दुनिया में करीब हर देश अपने नागरिकों को मानसिक स्वास्थ्य पर बीमा दे रहा है सिर्फ भारत ही एक देश है जहां इस बारे में बातें तो बहुत हो रही हैं लेकिन, असल में हो कुछ नहीं रहा। यह बात सही है कि संसद ने कानून के जरिए मानसिक सेहत को बीमा में शामिल किया। सरकार को अब चाहिए कि इस कानून का हर स्तर पर अमल करे। IRDAI जिसके पास बीमा कंपनियों को काबू करने की हर ताकत मौजूद है वह भी दो-ढाई साल से खामोश बैठी थी।“ 

15 जुलाई 2019 को लोक सभा में सासंद संतोख सिंह चौधरी के उस सवाल के जवाब में जिसमें उन्होने मानसिक स्वास्थ्य बीमा के तहत कुल लाभार्थियों की तादाद पूछी थी, वित्त मंत्री ने सदन को बताया कि IRDAI (इरडा) ने अपने 16 अगस्त, 2018 के सर्कुलर के बाद मानसिक स्वास्थ्य को कवर करने वाले 110 प्रोडेक्टस को मंजूरी दी है। हालांकि, इरडा राज्यवार लाभार्थियों की सूची नहीं बता पाया। इसी सवाल के दूसरे हिस्से में उन्होंने सरकार से मानिसक स्वास्थ्य बीमा के तहत ज्यादा-से-ज्यादा लोगों को शामिल करने के लिए सरकार के उठाए जा रहे कदमों के बारे में भी पूछा जिसके जवाब में वित्त मंत्री ने बताया कि सरकारी सेक्टर की स्वास्थ्य बीमा कंपनियों मे 2018 से अपने अलग-अलग प्रोडक्ट्स के जरिए करीब एक लाख को बीमा कवर दिया है जिसमें मानसिक स्वास्थ्य भी शामिल है।

प्राइवेट/सरकारी बीमा सेक्टर और मानसिक स्वास्थ्य को बीमा की जरूरत

मौजूदा वक्त में देश में स्वास्थ्य बीमा में सिर्फ हॉसपिटिलाइजेशन को ही कवर किया गया है इलके अलावा कुछ नहीं। हालांकि, ओपीडी का खर्च सेहत पर होने वाले खर्च का अहम हिस्सा होता है, जिसको फिलहाल बीमा के तहत कवर नहीं किया जा रहा है। हमारे देश में स्वास्थ्य बीमा दो स्तर पर काम कर रहा है- प्राइवेट स्वास्थ्य बीमा और सरकारी स्वास्थ्य बीमा।

प्राइवेट सेक्टर में एचडीएफसी इरगो, आईसीआईसीआई लॉमबर्ड जैसी तमाम बड़ी कंपनियां लोगों को स्वास्थ्य बीमा सुविधाएं दे रही हैं। ये कंपनियां अपने ग्राहक से तय वक्त में तय प्रीमियम लेती हैं। लेकिन, ध्यान देने वाली बात यहां यह है कि कंपनियां बीमारियों के रिस्क लेवल और उनको दी जाने वाली सुविधांओं के हिसाब से प्रीमियम बांधती है न कि ग्राहक की तनख्वाह के हिसाब से। यानी ज्यादा सुविधा तो ज्यादा प्रीमियम सैलेरी चाहे कुछ भी हो।

वहीं सरकारी स्वास्थ्य बीमा सुविधा का फायदा हाशिए पर रह रहे लोग और गरीबों के लिए हैं। इस बीमा में आमतौर पर प्रीमियम नहीं देना होता इसका खर्च केन्द्र और राज्य सरकारें उठाती हैं। राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना, इंप्लायमेंट स्टेट इंश्योरेंस स्कीम, सेंट्रल गर्वंमेंट हेल्थ स्कीम, आम आदमी बीमा योजना और आयुष्मान भारत। सरकारी सेक्टर में ही जनरल इंश्योरेंस कॉरपोरेशन और उसके चार सहायक कंपनियां- नेशनल इंश्योरेंस कॉरपोरेशन, न्यू इंडिया अश्योरेंस कंपनी, ओरियंटल इंश्योरेंस कंपनी और युनाइटेड इंश्योरेंस कंपनी स्वैच्छिक बीमा योजनाएं लोगों को दे रही हैं।

NMHS, 2015-2016 के मुताबिक देश की करीब 11 फीसद आबादी कभी भी मानसिक विकारों जैसे- डिप्रेशन, एंजाएटी, गंभीर और सामान्य मानसिक विकार या सब्सटैंस यूज डिस्ऑर्डर की शिकार हो सकती हैं। ऐसा नहीं है कि विकारों का इलाज मौजूद नहीं है लेकिन, मनोरोगियों की आबादी और डॉक्टरों की मौजूदगी का अंतर मसलन शराब विकार में 86.3% है, गंभीर डिप्रेशन में 85.2% है और न्यूरोसिस में 83.2%। बावजूद इसके इलाज पर आने वाला खर्च भी मनोरोगियों को ठीक होने और करने में बड़ी रुकावट पैदा करता है। इसलिए अगर मानसिक स्वास्थ्य को बीमा के दायरे में लाया जा रहा है तो यह फैसला इस आबादी के इलाज मिलने की उम्मीद को बढ़ाता दिखता है।

सरकार का बीमा सेक्टर पर खर्च

फिलहाल, सरकार सकल घरेलू उत्पाद (GDP) का स्वास्थ्य सेक्टर पर 1.15% ही खर्च कर रही है जोकि पूरी दुनिया की तुलना में काफी कम है। 80% यह सेक्टर प्राइवेट है जो आम आदमी के लिए खासा खर्चीला है। इस मंहगे इलाज की ही वजह से काई लोगों तक स्वास्थ्य सुविधाएं पहुंच नहीं पाती या वे इलाज का बोझ उठा नही पाते। NSSO, 2006 के रिकार्ड्स बताते हैं कि पैसे की तंगी की वजह से शहरी इलाकों की करीब 20% औऱ ग्रामीण इलाकों की करीब 28% आबादी इलाज ही नहीं ले पाती। देश में केन्द्र, राज्य और स्थानीय सरकार स्वास्थ्य पर कुल खर्च का मिलकर 20% खर्च करती है और बाकी का 71% लोगों को खुद अपनी जेब से खर्च करना पड़ता है। वलर्ड बैंक का 2012 में छपी रिपोर्ट के मुताबिक भारत में स्वास्थ्य पर सरकार सिर्फ 3.6% खर्च करती है जोकि कम आय वाले देशों की तुलना में खासा कम है और इसीलिए यहां स्वास्थ्य में वित्तीय सुरक्षा काफी कम है। बीमांकिक या एक्च्ऐरियल फर्म मिलिमैन की रिपोर्ट ‘Indian Life and Health Insurance Sectors’ का कहना है कि 2017 तक 1.3 अरब की आबादी वाले भारत देश में 44% लोगों के पास ही स्वास्थ्य बीमा था। उसी तरह स्वास्थ्य सुविधाओं में सरकारी हिस्सा 30% है और प्राइवेट 70% ।   

बीमा है लेकिन अमल की योजना गायब

ये बात सही है कि मानसिक स्वास्थ्य को स्वास्थ्य बीमा के तहत कानूनी तौर पर लाया गया है लेकिन, इसे अमल में किस तरह लाया जाएगा इस पर कोई ध्यान नहीं है। यही वजह है कि वक्त-वक्त पर इस मुद्दे पर सवाल खड़े होते रहे हैं। मानसिक रोगी को जब तक कोई गंभीर बीमारी या विकार नहीं होता उसे अस्पताल में भर्ची नहीं किया जाता और अगर ऐसा होता भी है तो कुछ हफ्तों या महीने बाद उसे डिस्चार्ड कर दिया जाता है। इसके बाद भी घर बैठे उसकी दवाईयां चलती रहती है जो खर्चीला इलाज है। फिर अगर एक के बजाए दो जगहों (काउंसिलिंग, दवाएं) से रोगी का इलाज चल रहा है तो उसे भी क्या बीमा में शामिल किया जाएगा। कानून के मुताबिक मानसिक रोगी अपना इलाज खुद चुनने के लिए आजाद है अब अगर रोगी कोई मंहगा इलाज का तरीका चुनता है या चुनती है तो क्या बीमा कवर उसे मिलेगा।

फिर, प्रीएक्जिजटिंग कंडिशन में जैसे शारीरिक रोगी को रोग की गंभीरता और उसकी चिरकारी (क्रानिक) स्थिति को देखकर ही बीमा कंपनियां प्रीमियम तयकरती थी लेकिन, मानसिक रोगियों को इस पैमाने पर कैसे उतार पाएंगी ये कंपनियां ये भी एक बहस की बात है। मानसिक स्वास्थ्य रोगियों के इलाज में मेडिकल चिकित्सा के अलावा, पुर्नवास, साइकोथैरेपी और काउंसिलिंग भी होती है जो महीनों चलती है अब ऐसे में क्या बीमा कंपनियां इनको बीमा का पैसा देने को तैयार होंगी या ऐसे कौन-से इलाज हैं जिन्हें बीमा कंपनियों ने दायरे से बाहर रखा है। कानून के सेक्शन 115 (2) में कहा गया है कि बेहद तनाव से खुदकुशी की कोशिश करने वाला कोई भी व्यक्ति अगर बच जाता है तो उसकी देखभाल की ड्यूटी सरकार की है तो इस तरह क्या आत्महत्या की कोशिश करने वाले मामले में बीमा कंपनियां कवर करेंगी। फिलहाल, ये सारे सवाल तब तक सवाल ही बने रहेंगे जब तक वाकई इस मामले में बीमा कपंनियां, इरडा, सरकार या अदालत कोई एकराय न बना लें।

(Image cc- The Financial Express)

 

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